फ़िर छिड़ी गुफ़्तगू तन्हाइयों की, माज़ी से जब आज भी आँसू दोहराए गुज़रे कल के किस्से आज भी गूँजती है बरसों पुरानी हंसी आज भी ताज़ा है हर वो लब्ज़ सूखी आज भी झलकता है अश्क़ नमकीन यादों की आज भी जगती है आरज़ू बीती ज़िन्दगी की दर्द जब दिल में हद से ज़्यादा भर जाये तो बेहती है धारा बन नज़्मों की आँसू अब नहीं करते ज़ाया हम बस लफ़्ज़ों की माला बुनते है कोरे पन्नों पे माज़ी से शिकायत तो आज भी है पर शायद बेहद्द चाहत भी उसी से है !! - सरिता Dated - 28th October 2016
There is an inner self to everyone. You might speak, speak a lot; but yet there would be so many things unsaid, so many thoughts not shared, so many emotions hidden; well, here I am - where my silence speaks...