जिस राह पे तू चलता है राही, कभी उसकी मंज़िल को पेहचाना है तूने
जहाँ तक तेरी नज़र जाती है, बस वहीँ तक का सफ़र नहीं है तेरा
वो जो अनदेखा छिपा है उस मोड़ की आड़ में, उसकी भनक भी नहीं तुझे
फिर कैसे तू केहता है " मैं जानता हूँ कहाँ मेरी मंज़िल है"
कभी सिर्फ धूप में चला तो कभी शीतल छाओं में
कभी दोस्तों के संग मस्ती में तो कभी अकेले अपनी तन्हाई में
कभी मेहबूबा की मुहोब्बत में डूबा तो कभी अपने गमों के सागर में
पर चाह के भी रुक़ न सका तू, चाह के भी मुड़ न सका तू
जिसे तूने मंज़िल समझा वो तो बस एक पड़ाव निकला
लाख कोशिश की तूने पर उस पड़ाव पर डेरा ना डाल सका
वो सब जो तुझे प्यारे थे पीछे छूट गए , चाह के भी तू उनकी राह पे चल ना सका
नए लोगों से नए रिश्तों से बंधता टूटता चला, अपने आपको डून्ड़ता चला
तू मुसाफिर है तो ये क्यूँ नहीं मानता
की जो राह में तुझे मिले उनका कोई भरोसा नहीं
जिस राह पे जिस मौसम में तू चल रहा है वो भी बदल जायेंगे
जब तू अपनी मंज़िल पे पहुंचेगा तो पता नहीं किसे संग पायेगा.
जिस दिन तू मानेगा की सिर्फ चलना तेरा काम है
जिस दिन आने वाले कल की - आने वाले मोड़ की चिंता तू छोड़ेगा
जिस दिन तू हर मौसम में मुस्कुराना सीखेगा
उस दिन से तेरा सफ़र सुहाना हो जायेगा
उस दिन तू अपनी मंज़िल को करीब पायेगा...--- सरिता
nicely written :)
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