अम्मा,
आज सोचा की लिख ही डालूँ
एक छोटी सी अर्ज़ी तेरे नाम.
तुझसे अक्सर कहती हूँ ना मैं
कि ना कर इतनी फ़िक्र मेरी
तेरे अनगिनत सवालों से छिड़ती भी हूँ
पर मन ही मन मैं घबराती हूँ
अगर तूने मेरी चिंता सच में छोड़ दिया
तो मेरा क्या होगा?
ना कोई ऐसा रिश्ता बना आज तक
जो तेरी जगह ले पाया
और ना ही कोई ऐसा आगे भी होगा
तेरी आदत सी हो गयी है, अम्मा
तो, मेरे लाख मना करने पे भी
तू मुझे लाड़ करना मत छोड़ना
फिर चाहे में हज़ार दफ़ा बोलूँ की
“अब मैं बच्ची नहीं रही.
बड़ी हो गयी हूँ.
अपना ख़याल रख सकती हूँ.”
फिर भी तुम रोज़ पूछना
खाना खाया?
बालों में तेल क्यूँ नहीं लगाया?
क्यूँ जाती हो हाइक वाइक पे?
कम से कम छुट्टियों में तो आराम कर!
ये क्या रूखा सूखा खाती हो, कुछ ढंग का खाना खाओ.
खाँस क्यूँ रही हो? कोई काढ़ा बनाने वाला भी नहीं है वहाँ!
बाहर इतनी बर्फ़ पढ़ रही है, स्वेटर क्यूँ नहीं पेहना?
चेहरा क्यूँ उतरा हुआ है? बहुत काम था?
शादी के बारे में क्या सोचा है?
तबियत ठीक नहीं तो छुट्टी क्यूँ नहीं ले लेती?
गाड़ी ज़रा धीरे से चलाना!
नारियल पानी पिया करो रोज़.
वग़ैरा वग़ैरा वग़ैरा वग़ैरा
हाँ, पहले ये बेमतलब के सवाल लगते थे
दफ़्तर की मसरूफ़ियत में ये कहीं खो जाते थे
पर तुझसे इतने साल दूर रेहकर जाना
की तेरे इन सवालों से घिरा सुबह का फ़ोन
मेरे दिन के बाक़ी सारे पलों से ख़ास है
जैसे मैं तेरी गोद के लिए तरसती हूँ
वैसे ही तू भी तो मेरी आहट के लिए तड़पती होगी
मैं भले ही अकेले दुनिया से लड़ जाऊँ
पर तेरे लिए हमेशा रहूँगी तेरी नादान बच्ची
चाहे मैं मेरी समझदारी के लाख सबूत पेश करूँ
पर तू कभी मेरी बात मान मत लेना अम्मा
मुझे कभी अपनी नज़र में बड़ा मत होने देना
तेरे ये सवाल ही तो है अम्मा
जो मुझे मेरी जड़ों से जुड़ी रखती है
वरना इस दुनिया की रफ़्तार में
खुद को भूल जाना कोई मुश्किल बात नहीं
तो इसलिए अम्मा
कल भी जब फ़ोन करोगी
तो मुझसे ये सारे सवाल फ़िर से पूछना
और हाँ,
वो तुम्हारी धारावाहिक की कहानी भी सुनाना
भले ही मुझे वो आज तक कभी समझ नहीं आए
पर उनकी भी आदत पड़ गयी है अब.
क्यूँकि तू अम्मा,
तू मेरी ज़िंदगी की सबसे अच्छी आदत है.
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