हँसते हँसते चुप हो जाते है
पलकों पे एक अश्क की मोती आ रूकती है
अपनों के साथ भी दिल को लगता पराया सा है
भीड़ में भी कभी हो जाते तनहा हम है ।।
कातिल नहीं वो लेकिन कातिल से कम भी तो नहीं
मौत तो नहीं हुई है पर क़त्ल ज़रूर हुआ है
उसने जीने की तमन्ना का गला घोंटा है
हमसे न पूछो की वो मुजरिम है की नहीं ।।
मुजरिम नहीं करार सकते उसे
क्यूंकि सज़ा हम दे नहीं सकते उसे
उसपे आंच आये ऐसा चाहता नहीं ये दिल
खुश रहे बस यही दुआ करता है ये दिल ।।
ज़िन्दगी का यह कैसा मज़ाक है
खुदा ने मुहोब्बत जैसा गुनाह बनाया क्यूँ
क्या सिखाना चाहता था वो इंसान को
की मरकर भी कैसे जिया जाता है??
उसीकी यादों की गलियों में बार बार दिल मुड़ता है
जानता है गुमराह होगा वो
जानता है गम की अंधेरों में डूबेगा वो
पर फिर भी गलती दोहराने पे मजबूर है वो ।।
दर्द दरिया सा समाया रहता है इस दिल में
पर मुस्कुराने की ख़ता करने पे मजबूर है
अपना उसे कह नहीं सकते
और पराया वो कभी होगा नहीं ।।
चलो अब गुनाह कर ही लिया है
तो सज़ा ए गम भी भुगत लेंगे हम
जीकर मरने की ख़ता कर ही ली है
तो मरकर जीने की कोशिश भी कर लेंगे हम ।।
-सरिता
Dated - 30th January 2013
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