वक़्त के बिखरे लम्हे समेटते रह गए
तेरी परछाई से मेहरूम रास्तों पर भटकते रह गए
गुमनामी में इस क़दर हम खो गए
की अपनी ही पेहचान को ढूंढ़ते रह गए
जीते तो आज भी है हम उन यादों के सहारे
तुम्हारी बचपन की खिलखिलाहट बसी जिनमें है
लौटना चाहती है ममता उन गलियों में फिर से
जहां हर कदम पर हाथ हमारा थामते तुम थे
इंतज़ार आज भी है इन निगाहों को
कपकपाते हाथ ढूंढ़ते आज भी वो सहारा है
ज़िन्दगी के दौड़ में जो उलझ के रह गए
उस रिश्ते की ख्वाहिश आज भी इन धड़कनों को है ...
-सरिता
Dated 21st Sep 2015
(Dedicated to my mom on her birthday.)
तेरी परछाई से मेहरूम रास्तों पर भटकते रह गए
गुमनामी में इस क़दर हम खो गए
की अपनी ही पेहचान को ढूंढ़ते रह गए
जीते तो आज भी है हम उन यादों के सहारे
तुम्हारी बचपन की खिलखिलाहट बसी जिनमें है
लौटना चाहती है ममता उन गलियों में फिर से
जहां हर कदम पर हाथ हमारा थामते तुम थे
इंतज़ार आज भी है इन निगाहों को
कपकपाते हाथ ढूंढ़ते आज भी वो सहारा है
ज़िन्दगी के दौड़ में जो उलझ के रह गए
उस रिश्ते की ख्वाहिश आज भी इन धड़कनों को है ...
-सरिता
Dated 21st Sep 2015
(Dedicated to my mom on her birthday.)
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